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कांग्रेस से हो रहा है लगातार पलायन -पार्टी के आला नेता किंकर्तव्यविमूढ़ ?

 

>अशोक भाटिया

देश में नेताओं का दलबदल करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन अगर एक ही पार्टी के पाले में सारे नेता जाने लगे, अगर अचानक से हर किसी को एक ही पार्टी पसंद आने लगे, तब पैटर्न कुछ खटकता है, मन में सवाल भी उठते हैं। अब देश की जो वर्तमान स्थिति चल रही है, वहां पर तो एक पार्टी पलायन का अड्डा बनी हुई है तो दूसरी पार्टी उन्हीं पलायन करने वाले नेताओं की सियासी ‘धर्मशाला’।

एडीआर ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें 2014 से लेकर 2021 तक का डेटा विश्लेषण किया गया है। उस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले सात सालों में 426 नेताओं ने अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। ये सारे विधायक और सांसद स्तर के नेता थे। वही अगर बात 2021 से 2024 की करें तो 200 नेताओं ने भाजपा ज्वाइन कर ली, सबसे बड़ा खेल महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में देखने को मिला।

अब अगर कई दलबदलू भाजपा में शामिल हो रहे थे, दूसरी तरफ फुल स्पीड से कांग्रेस से उनका पलायन भी हो रहा था। आंकड़े बताते हैं कि पिछले सात सालों में कांग्रेस से 399 नेताओं का मोह भंग हुआ, यहां भी विधायक, सांसद और तो और मुख्यमंत्री पद के नेता भी रहे। हाशिए पर चल रही मायावती की बसपा को भी 170 नेताओं ने छोड़ दिया। भाजपा के भी कुछ नेताओं ने पाला बदल दूसरी पार्टियों में पलायन किया, लेकिन वो आंकड़ा सिर्फ 144 का बैठता है। ऐसे में भाजपा में जाने वाले नेताओं की लिस्ट ज्यादा लंबी है।

अब एक सवाल ये उठता है कि आखिर ज्यादातर विपक्षी नेता भाजपा का दामन क्यों थाम रहा है। विपक्ष के पास तो इसका एक सीधा-साधा जवाब है- ईडी-सीबीआई का डर दिखाकर पार्टियों को तोड़ा जा रहा है, भाजपा लॉजिक दे रही है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को देखकर, उनके काम से प्रभावित होकर ये निर्णय लिए जा रहे हैं। लेकिन इससे अलग अगर इस पूरी स्थिति को समझने की कोशिश की जाए तो पता चलता है कि जिन कारणों से पार्टी को छोड़ा जाता है, भाजपा उन्हीं कारणों को दूर करने की कोशिश करती दिख जाती है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हिमंता बिस्वा सरमा हैं जो एक समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे, साल 2001 में असम की राजनीति में सक्रिय हुए और फिर लगातार सरकारों में मंत्री पद भी संभाला। लेकिन 2015 में उनका कांग्रेस से मोह भंग हुआ और उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। अब माना जाता है कि हेमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस को छोड़ने का फैसला राहुल गांधी के रवैये की वजह से लिया था। वे खुद ही इस किस्से को कई बार बता चुके हैं। उन्होंने कहा था कि असम के एक जरूरी मुद्दे पर राहुल से बात करने गए, लेकिन वे अपने कुत्ते को खिलाने में व्यस्त चल रहे थे। जब मीटिंग शुरू भी हुई, बार-बार वो कुत्ता बीच में आ जाता।

यानी कि संदेश ये दिया गया कि राहुल गांधी गंभीर मुद्दों पर चर्चा करने से बच रहे थे और उनका सारा ध्यान सिर्फ अपने कुत्ते पर था। अब ये बोलकर हिमंता तो कांग्रेस से अलग हो गए, लेकिन उन्होंने भाजपा का दामन थाम वो हासिल कर लिया जो कई सालों तक नहीं कर पाए। वे असम राज्य के मुख्यमंत्री बन गए, नॉर्थ ईस्ट में भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बने और पूर्वोत्तर में पार्टी की सरकार बनाने में अपनी सक्रिय भूमिका अदा की।

लिस्ट यही खत्म नहीं हो रही है।शुभेंदू अधिकारी कौन थे? ममता बनर्जी के दायाँ हाथ , लेफ्ट सरकार के खिलाफ जितने आंदोलन किए…वे सबसे बड़े रणनीतिकार थे। भाजपा को पता था, बंगाल में संगठन खड़ा करना है तो अधिकारी का साथ होना जरूरी है। अब आज ममता के खिलाफ सबसे बुलंद आवाज शुभेंदू की है, भाजपा की पिच से बैटिंग कर रहे हैं, नेता प्रतिपक्ष का पद भी मिला हुआ है, यानी कि पहचान मिल गई इनाम मिल गया… और क्या चाहिए। अब इसी इनाम की चाह बोल लीजिए या कुछ और…. कांग्रेस से कई और नेताओं का पलायन हुआ है…बोलने की जरूरत नहीं… सब भाजपा में शामिल हुए हैं।

गांधी परिवार के वफादार एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी का कांग्रेस से बाहर जाना 2014 में चुनावी हार के बाद पार्टी की बार-बार वापसी में विफलता को लेकर विशेषाधिकार प्राप्त युवा नेताओं के बीच बढ़ती बेचैनी को दर्शाता है।इनमें से कुछ प्रमुख हैं चौधरी बीरेंद्र सिंह, कैप्टन अमरिंदर सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, नारायण राणे, एसएम कृष्णा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, अशोक तंवर, प्रियंका चतुर्वेदी, सुष्मिता देव, किरण कुमार रेड्डी, हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़, टॉम वडक्कन और जयवीर शेरगिल।

उनमें से, बीरेंद्र सिंह 2014 से 2019 तक केंद्रीय मंत्री थे और 2019 में अपने बेटे के लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। वह अब हरियाणा की राजनीति में किनारे कर दिए गए हैं, जबकि राव इंद्रजीत लगातार निचले पायदान पर हैं। -प्रोफ़ाइल केंद्रीय मंत्री.मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को गिराने के इनाम के रूप में सिंधिया को केंद्रीय मंत्री (जुलाई 2021) बनने के लिए एक साल से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ा। उनके पास नागरिक उड्डयन विभाग है। उन्हें मध्य प्रदेश में पार्टी के भविष्य के रूप में पेश करने के प्रयासों का स्थानीय नेतृत्व ने कड़ा विरोध किया।

राणे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के प्रभारी केंद्रीय मंत्री भी हैं, जिनकी महाराष्ट्र की राजनीति में कोई सक्रिय भूमिका नहीं है।उत्तर प्रदेश में मंत्री के रूप में प्रसाद की नियुक्ति का श्रेय व्यापक रूप से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ उनकी निकटता को दिया जाता है, जबकि उनके पूर्व सहयोगी आरपीएन सिंह अभी भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं। गुजरात के युवा पाटीदार नेता हार्दिक पटेल भी ऐसे ही हैं।

पंजाब में, कैप्टन अमरिन्दर सिंह को एक ख़त्म हो चुकी ताकत माना जाता है, और मुख्यमंत्री के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान उन्हें पद से हटाने और उसके बाद 2022 के विधानसभा चुनावों में अपमानजनक हार के बाद जनता के साथ उनका भारी अलगाव हो गया था। पंजाब की राजनीति में उनका दबदबा कम होता दिख रहा है.81 साल की उम्र में, कैप्टन अमरिन्दर सिंह मौजूदा भाजपा नेतृत्व द्वारा अपने सदस्यों के लिए पार्टी या सरकार में कोई भी पद संभालने या कोई चुनाव लड़ने के लिए निर्धारित 75 वर्ष की आयु सीमा को पहले ही पार कर चुके हैं।उन्हें पंजाब कांग्रेस के पूर्व प्रमुख सुनील जाखड़ के साथ भाजपा की 83 सदस्यीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह दी गई है। शेरगिल अब भाजपा के प्रवक्ता हैं और वह कांग्रेस में भी इस पद पर थे।

कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह, आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी राज्य में कोई राजनीतिक दिग्गज नहीं हैं। आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना बनने के तुरंत बाद, उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और अपना खुद का संगठन, जय समैक्यांध्र पार्टी बनाई, जो 2014 के विधानसभा चुनावों में एक भी सीट जीतने में विफल रही। 2018 में वह वापस कांग्रेस में चले गए। पूर्व विदेश मंत्री एसएम कृष्णा राजनीतिक गुमनामी में चले गए हैं और कर्नाटक की राजनीति में शायद ही सक्रिय हों।

अप्रैल 2020 में वडक्कन का भाजपा में शामिल होना एक बड़ा मीडिया कार्यक्रम बन गया और टीवी चैनलों ने उन्हें पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का करीबी सहयोगी बताया। वह अब भाजपा के प्रवक्ता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, लेकिन उन्हें आधिकारिक मंच से विभिन्न मुद्दों पर पार्टी का रुख स्पष्ट करते हुए कम ही देखा जाता है।फिर गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता हैं जिन्होंने अपना खुद का संगठन डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी बनाई, और कपिल सिब्बल जिन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और समाजवादी पार्टी के सौजन्य से राज्यसभा सदस्य बने।

फिल्मस्टार से नेता बने शत्रुघ्न सिन्हा और क्रिकेटर से नेता बने कीर्ति आजाद ने कांग्रेस में शामिल होने के लिए भाजपा छोड़ दी थी, लेकिन तृणमूल कांग्रेस में जाने से पहले कुछ समय तक इसके साथ जुड़े रहे। सिन्हा पश्चिम बंगाल के आसनसोल से लोकसभा सदस्य हैं।अन्य दलों में शामिल होने वालों में प्रियंका चतुवेर्दी भी शामिल हैं, जो शिवसेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले गुट के साथ हैं और उन्होंने पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में अपने लिए जगह बनाई है; सुष्मिता देव, जिन्हें तृणमूल कांग्रेस द्वारा संसद के ऊपरी सदन में जगह दी गई थी, और हरियाणा कांग्रेस के पूर्व प्रमुख अशोक तंवर, जो अब तृणमूल कांग्रेस के साथ एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद आम आदमी पार्टी (आप) के सदस्य हैं।

जबकि उनमें से कुछ प्रासंगिक बने रहने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, चार वर्तमान भाजपा मुख्यमंत्री हैं – हिमंत बिस्वा सरमा (असम), प्रेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश), बीरेन सिंह (मणिपुर), और माणिक साहा (त्रिपुरा) – जिन्होंने एक बार शपथ ली थी सबसे पुरानी पार्टी.विडंबना यह है कि तंवर, सिंधिया, प्रसाद, आरपीएन सिंह और देव सभी राहुल गांधी के करीबी माने जाते थे, उन्हें उन्होंने कांग्रेस में प्रमुख पद दिए और जब वह पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो चले गए। जाहिर है, उन्हें कांग्रेस में कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था.

हालांकि इन नेताओं की निष्ठा हमेशा सवालों के घेरे में रहेगी, क्योंकि उन्होंने उस समय पार्टी छोड़ी थी (जिसने उन्हें राजनीति में स्थापित किया था) जब इसकी हालत खराब थी, उनके बाहर जाने से निस्संदेह कैडर पर हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ता है और उन्हें यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि वे डूबते जहाज़ पर सवार हैं.अपनी ओर से, कांग्रेस को भी अपने नेताओं, विशेषकर जेननेक्स्ट की चिंता को दूर करने के लिए सभी स्तरों पर संचार के चैनल खोलने की जरूरत है, जिनकी उम्मीदें राष्ट्रीय पार्टी की लगातार चुनावी असफलताओं से चकनाचूर हो गई हैं।

इस पलायन को रोकने के लिए, सबसे पुरानी पार्टी को चुनावी गिरावट को रोकना होगा और पुनरुत्थान के स्पष्ट संकेत दिखाने होंगे। यह साबित करने के गंभीर प्रयास कि पार्टी एक बार फिर से लड़ने लायक चुनावी मशीनरी बनने की राह पर है, इसके कैडर के बीच विश्वास बहाल करने में काफी मदद मिलेगी। जब तक यह पुनरुत्थान की आशा को प्रेरित नहीं करता, कांग्रेस के लिए अपने दल को एकजुट रखना मुश्किल होगा।

अशोक भाटिया,

वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार

लेखक 5 दशक से लेखन कार्य से जुड़े हुए हैं

पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड से सम्मानित,

वसई पूर्व – 401208 ( मुंबई )

फोन/ wats app 9221232130 E mail – vasairoad . yatrisangh@gmail.com

 

कांग्रेस से हो रहा है लगातार पलायन -पार्टी के आला नेता किंकर्तव्यविमूढ़ ?

>अशोक भाटिया

देश में नेताओं का दलबदल करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन अगर एक ही पार्टी के पाले में सारे नेता जाने लगे, अगर अचानक से हर किसी को एक ही पार्टी पसंद आने लगे, तब पैटर्न कुछ खटकता है, मन में सवाल भी उठते हैं। अब देश की जो वर्तमान स्थिति चल रही है, वहां पर तो एक पार्टी पलायन का अड्डा बनी हुई है तो दूसरी पार्टी उन्हीं पलायन करने वाले नेताओं की सियासी ‘धर्मशाला’।

एडीआर ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें 2014 से लेकर 2021 तक का डेटा विश्लेषण किया गया है। उस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले सात सालों में 426 नेताओं ने अपनी पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। ये सारे विधायक और सांसद स्तर के नेता थे। वही अगर बात 2021 से 2024 की करें तो 200 नेताओं ने भाजपा ज्वाइन कर ली, सबसे बड़ा खेल महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात में देखने को मिला।

अब अगर कई दलबदलू भाजपा में शामिल हो रहे थे, दूसरी तरफ फुल स्पीड से कांग्रेस से उनका पलायन भी हो रहा था। आंकड़े बताते हैं कि पिछले सात सालों में कांग्रेस से 399 नेताओं का मोह भंग हुआ, यहां भी विधायक, सांसद और तो और मुख्यमंत्री पद के नेता भी रहे। हाशिए पर चल रही मायावती की बसपा को भी 170 नेताओं ने छोड़ दिया। भाजपा के भी कुछ नेताओं ने पाला बदल दूसरी पार्टियों में पलायन किया, लेकिन वो आंकड़ा सिर्फ 144 का बैठता है। ऐसे में भाजपा में जाने वाले नेताओं की लिस्ट ज्यादा लंबी है।

अब एक सवाल ये उठता है कि आखिर ज्यादातर विपक्षी नेता भाजपा का दामन क्यों थाम रहा है। विपक्ष के पास तो इसका एक सीधा-साधा जवाब है- ईडी-सीबीआई का डर दिखाकर पार्टियों को तोड़ा जा रहा है, भाजपा लॉजिक दे रही है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को देखकर, उनके काम से प्रभावित होकर ये निर्णय लिए जा रहे हैं। लेकिन इससे अलग अगर इस पूरी स्थिति को समझने की कोशिश की जाए तो पता चलता है कि जिन कारणों से पार्टी को छोड़ा जाता है, भाजपा उन्हीं कारणों को दूर करने की कोशिश करती दिख जाती है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हिमंता बिस्वा सरमा हैं जो एक समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे, साल 2001 में असम की राजनीति में सक्रिय हुए और फिर लगातार सरकारों में मंत्री पद भी संभाला। लेकिन 2015 में उनका कांग्रेस से मोह भंग हुआ और उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। अब माना जाता है कि हेमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस को छोड़ने का फैसला राहुल गांधी के रवैये की वजह से लिया था। वे खुद ही इस किस्से को कई बार बता चुके हैं। उन्होंने कहा था कि असम के एक जरूरी मुद्दे पर राहुल से बात करने गए, लेकिन वे अपने कुत्ते को खिलाने में व्यस्त चल रहे थे। जब मीटिंग शुरू भी हुई, बार-बार वो कुत्ता बीच में आ जाता।

यानी कि संदेश ये दिया गया कि राहुल गांधी गंभीर मुद्दों पर चर्चा करने से बच रहे थे और उनका सारा ध्यान सिर्फ अपने कुत्ते पर था। अब ये बोलकर हिमंता तो कांग्रेस से अलग हो गए, लेकिन उन्होंने भाजपा का दामन थाम वो हासिल कर लिया जो कई सालों तक नहीं कर पाए। वे असम राज्य के मुख्यमंत्री बन गए, नॉर्थ ईस्ट में भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बने और पूर्वोत्तर में पार्टी की सरकार बनाने में अपनी सक्रिय भूमिका अदा की।

लिस्ट यही खत्म नहीं हो रही है।शुभेंदू अधिकारी कौन थे? ममता बनर्जी के दायाँ हाथ , लेफ्ट सरकार के खिलाफ जितने आंदोलन किए…वे सबसे बड़े रणनीतिकार थे। भाजपा को पता था, बंगाल में संगठन खड़ा करना है तो अधिकारी का साथ होना जरूरी है। अब आज ममता के खिलाफ सबसे बुलंद आवाज शुभेंदू की है, भाजपा की पिच से बैटिंग कर रहे हैं, नेता प्रतिपक्ष का पद भी मिला हुआ है, यानी कि पहचान मिल गई इनाम मिल गया… और क्या चाहिए। अब इसी इनाम की चाह बोल लीजिए या कुछ और…. कांग्रेस से कई और नेताओं का पलायन हुआ है…बोलने की जरूरत नहीं… सब भाजपा में शामिल हुए हैं।

गांधी परिवार के वफादार एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी का कांग्रेस से बाहर जाना 2014 में चुनावी हार के बाद पार्टी की बार-बार वापसी में विफलता को लेकर विशेषाधिकार प्राप्त युवा नेताओं के बीच बढ़ती बेचैनी को दर्शाता है।इनमें से कुछ प्रमुख हैं चौधरी बीरेंद्र सिंह, कैप्टन अमरिंदर सिंह, राव इंद्रजीत सिंह, नारायण राणे, एसएम कृष्णा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, अशोक तंवर, प्रियंका चतुर्वेदी, सुष्मिता देव, किरण कुमार रेड्डी, हार्दिक पटेल, सुनील जाखड़, टॉम वडक्कन और जयवीर शेरगिल।

उनमें से, बीरेंद्र सिंह 2014 से 2019 तक केंद्रीय मंत्री थे और 2019 में अपने बेटे के लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। वह अब हरियाणा की राजनीति में किनारे कर दिए गए हैं, जबकि राव इंद्रजीत लगातार निचले पायदान पर हैं। -प्रोफ़ाइल केंद्रीय मंत्री.मार्च 2020 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को गिराने के इनाम के रूप में सिंधिया को केंद्रीय मंत्री (जुलाई 2021) बनने के लिए एक साल से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ा। उनके पास नागरिक उड्डयन विभाग है। उन्हें मध्य प्रदेश में पार्टी के भविष्य के रूप में पेश करने के प्रयासों का स्थानीय नेतृत्व ने कड़ा विरोध किया।

राणे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के प्रभारी केंद्रीय मंत्री भी हैं, जिनकी महाराष्ट्र की राजनीति में कोई सक्रिय भूमिका नहीं है।उत्तर प्रदेश में मंत्री के रूप में प्रसाद की नियुक्ति का श्रेय व्यापक रूप से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ उनकी निकटता को दिया जाता है, जबकि उनके पूर्व सहयोगी आरपीएन सिंह अभी भी पुनर्वास का इंतजार कर रहे हैं। गुजरात के युवा पाटीदार नेता हार्दिक पटेल भी ऐसे ही हैं।

पंजाब में, कैप्टन अमरिन्दर सिंह को एक ख़त्म हो चुकी ताकत माना जाता है, और मुख्यमंत्री के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान उन्हें पद से हटाने और उसके बाद 2022 के विधानसभा चुनावों में अपमानजनक हार के बाद जनता के साथ उनका भारी अलगाव हो गया था। पंजाब की राजनीति में उनका दबदबा कम होता दिख रहा है.81 साल की उम्र में, कैप्टन अमरिन्दर सिंह मौजूदा भाजपा नेतृत्व द्वारा अपने सदस्यों के लिए पार्टी या सरकार में कोई भी पद संभालने या कोई चुनाव लड़ने के लिए निर्धारित 75 वर्ष की आयु सीमा को पहले ही पार कर चुके हैं।उन्हें पंजाब कांग्रेस के पूर्व प्रमुख सुनील जाखड़ के साथ भाजपा की 83 सदस्यीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह दी गई है। शेरगिल अब भाजपा के प्रवक्ता हैं और वह कांग्रेस में भी इस पद पर थे।

कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह, आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किरण कुमार रेड्डी राज्य में कोई राजनीतिक दिग्गज नहीं हैं। आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना बनने के तुरंत बाद, उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और अपना खुद का संगठन, जय समैक्यांध्र पार्टी बनाई, जो 2014 के विधानसभा चुनावों में एक भी सीट जीतने में विफल रही। 2018 में वह वापस कांग्रेस में चले गए। पूर्व विदेश मंत्री एसएम कृष्णा राजनीतिक गुमनामी में चले गए हैं और कर्नाटक की राजनीति में शायद ही सक्रिय हों।

अप्रैल 2020 में वडक्कन का भाजपा में शामिल होना एक बड़ा मीडिया कार्यक्रम बन गया और टीवी चैनलों ने उन्हें पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का करीबी सहयोगी बताया। वह अब भाजपा के प्रवक्ता और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, लेकिन उन्हें आधिकारिक मंच से विभिन्न मुद्दों पर पार्टी का रुख स्पष्ट करते हुए कम ही देखा जाता है।फिर गुलाम नबी आज़ाद जैसे नेता हैं जिन्होंने अपना खुद का संगठन डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आज़ाद पार्टी बनाई, और कपिल सिब्बल जिन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और समाजवादी पार्टी के सौजन्य से राज्यसभा सदस्य बने।

फिल्मस्टार से नेता बने शत्रुघ्न सिन्हा और क्रिकेटर से नेता बने कीर्ति आजाद ने कांग्रेस में शामिल होने के लिए भाजपा छोड़ दी थी, लेकिन तृणमूल कांग्रेस में जाने से पहले कुछ समय तक इसके साथ जुड़े रहे। सिन्हा पश्चिम बंगाल के आसनसोल से लोकसभा सदस्य हैं।अन्य दलों में शामिल होने वालों में प्रियंका चतुवेर्दी भी शामिल हैं, जो शिवसेना के उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले गुट के साथ हैं और उन्होंने पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में अपने लिए जगह बनाई है; सुष्मिता देव, जिन्हें तृणमूल कांग्रेस द्वारा संसद के ऊपरी सदन में जगह दी गई थी, और हरियाणा कांग्रेस के पूर्व प्रमुख अशोक तंवर, जो अब तृणमूल कांग्रेस के साथ एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद आम आदमी पार्टी (आप) के सदस्य हैं।

जबकि उनमें से कुछ प्रासंगिक बने रहने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, चार वर्तमान भाजपा मुख्यमंत्री हैं – हिमंत बिस्वा सरमा (असम), प्रेमा खांडू (अरुणाचल प्रदेश), बीरेन सिंह (मणिपुर), और माणिक साहा (त्रिपुरा) – जिन्होंने एक बार शपथ ली थी सबसे पुरानी पार्टी.विडंबना यह है कि तंवर, सिंधिया, प्रसाद, आरपीएन सिंह और देव सभी राहुल गांधी के करीबी माने जाते थे, उन्हें उन्होंने कांग्रेस में प्रमुख पद दिए और जब वह पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो चले गए। जाहिर है, उन्हें कांग्रेस में कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था.

हालांकि इन नेताओं की निष्ठा हमेशा सवालों के घेरे में रहेगी, क्योंकि उन्होंने उस समय पार्टी छोड़ी थी (जिसने उन्हें राजनीति में स्थापित किया था) जब इसकी हालत खराब थी, उनके बाहर जाने से निस्संदेह कैडर पर हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ता है और उन्हें यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि वे डूबते जहाज़ पर सवार हैं.अपनी ओर से, कांग्रेस को भी अपने नेताओं, विशेषकर जेननेक्स्ट की चिंता को दूर करने के लिए सभी स्तरों पर संचार के चैनल खोलने की जरूरत है, जिनकी उम्मीदें राष्ट्रीय पार्टी की लगातार चुनावी असफलताओं से चकनाचूर हो गई हैं।

इस पलायन को रोकने के लिए, सबसे पुरानी पार्टी को चुनावी गिरावट को रोकना होगा और पुनरुत्थान के स्पष्ट संकेत दिखाने होंगे। यह साबित करने के गंभीर प्रयास कि पार्टी एक बार फिर से लड़ने लायक चुनावी मशीनरी बनने की राह पर है, इसके कैडर के बीच विश्वास बहाल करने में काफी मदद मिलेगी। जब तक यह पुनरुत्थान की आशा को प्रेरित नहीं करता, कांग्रेस के लिए अपने दल को एकजुट रखना मुश्किल होगा।

अशोक भाटिया,

वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार

लेखक 5 दशक से लेखन कार्य से जुड़े हुए हैं

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