> अशोक भाटिया,
आगामी लोकसभा त्रिपुरा चुनावों में 2023 विधान सभा चुनावों में मात खाने के बाद दोबारा लोकसभा चुनावों में 72 साल पुराने दुश्मनों को साथ ला दिया है ! बताया जाता है कि त्रिपुरा में इस बार लोकसभा चुनावों में दोनों ही सीटों पर कांटे की टक्कर देखने को मिल सकती है क्योंकि सूबे के 72 साल के चुनावी इतिहास में लेफ्ट और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं।2024 का चुनाव ये दल मिलकर लड़ने जा रहे है पर यदि इनका पुराना इतिहास देखें तो 2023 का चुनाव साथ लड़ने पर त्रिपुरा में दोनों दलों को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली थी ।
यदि हम त्रिपुरा का पुराना चुनावी इतिहास खंगाले तो 60 सदस्यों वाली त्रिपुरा विधानसभा में किसी भी पार्टी को सरकार बनाने के लिए कम से कम 31 सीटों की ज़रूरत होती है । पिछले 2023 के रिजल्ट को देखें तो भारतीय जनता पार्टी 32 सीटें जीत कर सबसे ज़्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी के रूप में उभरी थी । हालांकि, भाजपा का इस बार का प्रदर्शन साल 2018 के प्रदर्शन के मुक़ाबले का नहीं रहा जब पार्टी ने 36 सीटें जीती थीं। 2018 विधानसभा चुनाव की तरह अबकी बार भी भाजपा ने इंडिजेनस पीपल्स फ़्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (आईपीएफ़टी) के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। जहां 2018 में आईपीएफ़टी ने 8 सीटें जीती थीं, वहीं इस बार ये पार्टी मात्र एक सीट ही जीत सकी है। इस एक सीट को मिला कर भाजपा गठबंधन की कुल 33 सीटें हो गई हैं जो सरकार बनाने के लिए काफ़ी थी ।
सीटें घटने के साथ भाजपा के वोट-शेयर में भी कमी आई । पिछले चुनाव में भाजपा का वोट-शेयर क़रीब 44 फ़ीसद रहा था। इस बार वो घट कर 39 फ़ीसदी रह गया था ।
त्रिपुरा की राजनीति पर नज़र रखने वालों का कहना है कि भाजपा की जीत के पीछे एक बड़ी वजह पिछले पांच साल में तेज़ी से विकास कार्यों का होना था । अगरतला में के एक वरिष्ठ पत्रकार जयंता भट्टाचार्य के अनुसार त्रिपुरा में नए रेल लिंक बने, नई सड़कें और राष्ट्रीय राजमार्ग बने। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बहुत से लोगों को घर मिले। सामाजिक पेंशनों को बढ़ाया गया। शौचालय बनाए गए। बहुत सी कल्याणकारी योजनाएं चलाई गईं। इस सब का भाजपा की जीत में एक बड़ा योगदान रहा था । अगरतला एक वरिष्ट पत्रकार देबराज देब भी मानते हैं कि केंद्र सरकार की विकास से जुड़ी प्रमुख योजनाओं का भाजपा की जीत में एक बड़ा हाथ रहा है। साथ ही वे कहते हैं कि कई बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स आने की वजह से भी भाजपा को फ़ायदा हुआ।
बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में देबराज देब फेनी नदी पर बने भारत-बांग्ला मैत्री ब्रिज और दक्षिण त्रिपुरा के बांग्लादेश से लगते छोर पर सबरूम में बनाए जा रहे इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट का ज़िक्र करते हैं। साथ ही वे अगरतला और बांग्लादेश के अखौरा के बीच शुरू होने जा रहे रेल लिंक प्रोजेक्ट को भी गिनाते हैं। देबराज देब कहते हैं कि इन सब इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की वजह से त्रिपुरा को एक बिज़नेस हब बनाने की कोशिश की जा रही है। भाजपा के राज में अब तो ये भी कहा जा रहा है कि आने वाले समय में त्रिपुरा गुवाहाटी के बाद दक्षिण पूर्व एशिया का प्रवेश द्वार बन सकता है।
वे यह भी कहते हैं कि 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद से ही त्रिपुरा में कनेक्टिविटी के क्षेत्र में काफ़ी बदलाव आए हैं, चाहे वो ब्रॉडगेज रेल कनेक्टिविटी की बात हो या त्रिपुरा में नवीनतम सुविधाओं से लैस त्रिपुरा के नए एयरपोर्ट टर्मिनल की। देब बताते हैं कि घर, पानी, कनेक्टिविटी, व्यापार, रोज़गार जैसे मुद्दों पर काफ़ी काम हुआ है भाजपा के शासन में। भाजपा का भी मानना है कि इन मुद्दों पर काम करने का फल उसे मिला है।
2023 के चुनावों में भाजपा का सीधा मुक़ाबला लेफ़्ट और कांग्रेस के गठबंधन से था। पिछले चुनावों में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। इस बार पार्टी को तीन सीटों पर जीत मिली थी । लेकिन सीपीएम की सीटों की संख्या पिछले चुनावों में जीती 16 सीटों से घट कर इस बार 11 सीटों पर आ गई थी ।
जानकारों का कहना है कि त्रिपुरा की राजनीति के इतिहास में जाएं तो ये साफ़ है कि लेफ़्ट और कांग्रेस के बीच एक लंबे अरसे तक तनाव और हिंसा का माहौल रहा है। दोनों ही पार्टियां अतीत में एक दूसरे पर हिंसा, राजनीतिक अपराध और हत्या के आरोप लगाती रही हैं। देबराज देब कहते हैं, “उन हिंसक घटनाओं की यादें जनता के ज़हन में अब भी ज़िंदा हैं और इन दो प्रतिद्वंद्वियों के ठीक चुनाव से पहले एक साथ आ जाने के बाद जो दोनों पार्टियों को एक-दूसरे के वोट ट्रांसफ़र होने की उम्मीद थी, वो शायद नहीं हुआ। “जानकारों की मानें तो कांग्रेस को शायद लेफ़्ट के साथ गठबंधन करने का थोड़ा फ़ायदा हुआ, लेकिन लेफ़्ट को इस गठबंधन से कोई ख़ास लाभ नहीं मिला। देबराज देब कहते हैं कि लेफ़्ट और कांग्रेस की केमिस्ट्री के न चलने की वजह से भाजपा का जीतना और आसान हो गया था ।
पुरानी मार को भूल कर अब Eत्रिपुरा में बताया जाता है कि 72 साल के चुनावी इतिहास में पहली बार लेफ्ट पार्टियां और कांग्रेस भाजपा से मुकाबला करने के लिए कोई लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ रहे हैं। हालांकि दोनों पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों ने पिछले साल के विधानसभा चुनाव में संयुक्त रूप से सत्तारूढ़ पार्टी को चुनौती दी थी। हाई प्रोफाइल त्रिपुरा पश्चिम लोकसभा सीट पर मुख्य मुकाबला भाजपा उम्मीदवार तथा त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब और राज्य कांग्रेस अध्यक्ष आशीष कुमार साहा के बीच होगा, जो इंडिया गठबंधन के साझा उम्मीदवार हैं।
दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष साहा और मौजूदा कांग्रेस विधायक सुदीप रॉय बर्मन ने मार्च 2018 में भाजपा के टिकट पर राज्य विधानसभा के लिए चुने जाने के बाद फरवरी 2022 में पार्टी छोड़ दी। सीपीएम के नेतृत्व वाले लेफ्ट फ्रंट को 25 साल बाद अपमानजनक हार देकर भाजपा पहली बार त्रिपुरा में सत्ता में आई। पिछले साल के विधानसभा चुनावों में, साहा और बर्मन ने भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था, लेकिन साहा हार गये, जबकि बर्मन ने अपनी सीट बरकरार रखी।
देब, जिन्होंने 14 मई 2022 को भाजपा के केंद्रीय नेताओं के निर्देश पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था, ने मई 2019 में लंबे आंतरिक कलह के बाद बर्मन को अपने मंत्रिपरिषद से हटा दिया था। बता दें कि वाम मोर्चा 1952 से हर चुनाव कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहा है। कांग्रेस आखिरी बार 1988 में वाम दलों को हराकर त्रिपुरा में सत्ता में आई थी। पिछले साल के विधानसभा चुनावों में, लेप्ट फ्रंट ने, जिसने कांग्रेस के साथ सीट-बंटवारे की व्यवस्था में विधानसभा चुनाव लड़ा था।
त्रिपुरा की 2 लोकसभा सीटों, त्रिपुरा पश्चिम और त्रिपुरा पूर्व में से चुनावी फोकस हमेशा त्रिपुरा पश्चिम लोकसभा सीट पर है, जिसे 1952 से सीपीएम ने 11 बार जीता था। कांग्रेस ने इस सीट पर 4 बार 1957, 1967, 1989 और 1991 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की। इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के साथ गठबंधन में 2018 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद BJP उम्मीदवार और केंद्रीय मंत्री प्रतिमा भौमिक ने 2019 में पहली बार त्रिपुरा पश्चिम लोकसभा सीट जीती। इस बार भाजपा ने भौमिक को हटाकर देब को मैदान में उतारा, जो वर्तमान में राज्यसभा सदस्य हैं।
गौरतलब है कि त्रिपुरा की चुनावी राजनीति में आदिवासी और अनुसूचित जाति समुदाय के मतदाता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुल 60 विधानसभा सीटों में से 30-30 सीटें त्रिपुरा पश्चिम और त्रिपुरा पूर्व लोकसभा सीटों में आती हैं। इनमें से 20 सीटें आदिवासियों के लिए और 10 सीटें अनुसूचित जाति समुदाय के लिए आरक्षित हैं। त्रिपुरा पश्चिम लोकसभा सीट में आने वाले 30 विधानसभा क्षेत्रों में से 7 आदिवासियों के लिए और 5 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। सियासी एक्सपर्ट शेखर दत्ता ने कहा कि सीपीएम सहित लेफ्ट पार्टियां के आदिवासियों और एस सी समुदाय के बीच बड़े पैमाने पर वोटर बेस में गिरावट के कारण 2018 के बाद से लगातार चुनावों में उनकी हार हुई है।
दत्ता ने बताया, ‘संगठनात्मक गिरावट के अलावा, नेतृत्व संकट और सत्ता विरोधी कारक अभी भी जारी हैं क्योंकि लेफ्ट फ्रंट 1978 से 1988 और फिर 1993-2018 तक त्रिपुरा में सत्ता में था। नए चेहरों के साथ, उन्हें भाजपा की चुनौती का सामना करने के लिए आदिवासियों और गैर-आदिवासियों दोनों के बीच संगठन का पुनर्निर्माण करना होगा।’
पुराने 10 साल के चुनावी इतिहास को देखते हुए नहीं लगता कि इंडिया गठबंधन कुछ सफलता प्राप्त कर पाएगी ।
अशोक भाटिया,
वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार
लेखक 5 दशक से लेखन कार्य से जुड़े हुए हैं
पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड से सम्मानित,
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