शमशान – शवदाह संस्कार
सामाजिक ढांचे में इंसानियत का विभाजन जन्म के साथ शुरू होकर मौत के बाद शमशान में समानता का भाव सब का बिस्तर एक से महसूस होता है – एडवोकेट किशन भावनानी
गोंदिया – श्मशान घाट का नाम सुनते ही आंखों के सामने खण्डहरनुमा वीरान स्थान, जलती चिता और उसकी राख की तस्वीर ही उभरती है। परंतु हमें किसी के कहे इन सुंदर वाक्य को वर्तमान परिपेक्ष में याद रखने की जरूरत है कि शमशान तेरा हिसाब बड़ा ही नेक है, तेरे यहां अमीर हो या गरीब सब का बिस्तर एक है। मेरा मानना है कि यहां यह एक ऐसा स्थान है जहां सबका एक समान स्थिति का बोध होता है समाज के हर वर्ग के हर प्राणी को उसी चिता पर लिटाया जाता है। हालांकि प्रक्रिया रीति रिवाज मान्यताएं हर वर्ग की अलग अलग हो सकती है क्योंकि इस रीति रिवाज की घनिष्ठता से ही भारत अनेकता में एकता का भाव रखता है परंतु भेदभाव के भाव में महसूस होता है अभाव!! हम सब जीवन के करीब क़रीब हर स्तरपर, हर स्थिति में भेदभाव का भाव महसूस करते हैं। हर कोई अपनों को प्राथमिकता देता है बड़े नामचीन लोगों का साथ प्रतिष्ठा का एक प्रतीक माना जाता है, परंतु अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति से कोई मतलब पड़ने पर ही बात करना पसंद करता है परंतु असल में श्मशान का बिस्तर ही एक ऐसा स्थान है जहां हर रिक्शा वाले रेहड़ी पटरी वाले और मजदूर इंसान से लेकर बड़े से बड़े उद्योगपति ऑफिसर नेता व्यक्ति की देह को भी उसी बिस्तर पर ही प्रक्रिया कर अग्नि सुपुर्द या सुपुर्द ए खाक किया जाता है जो एक सबसे बड़ा समानता का प्रतीक है। चूंकि आज हम शमशान की नेक सबका बिस्तर एक पर चर्चा कर रहे हैं इसीलिए हमें श्मशान और उससे जुड़ी प्रथाओं मान्यताओं और महिलाओं के प्रवेश वर्जित की मान्यताओं पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहयोग उपलब्ध जानकारी के सहयोग से इस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे।
साथियों बात अगर हम अंतिम संस्कार की करें तो, हिंदू धर्म में 16 संस्कारों में 16वां संस्कार अंतिम संस्कार होता है। हिंदुओं में व्यक्ति की मृत्यु के बाद दाह संस्कार की रस्में निभाई जाती हैं। मृत व्यक्ति की शव यात्रा निकालने के बाद श्मशान घाट में देह को पंचतत्व में विलीन किया जाता है। अक्सर हमने देखा होगा कि अंतिम संस्कार में केवल पुरुष ही शामिल होते हैं, जबकि महिलाओं का श्मशान घाट में जाना वर्जित होता हैं। ऐसा क्यों होता है? इसके पीछे कुछ पौराणिक मान्यताएं हैं।
साथियों बात अगर हम इंसान के बराबरी भाव की करें तो कहावत है कि ईश्वर की नजर में सब बराबर हैं, क्योंकि उसने सबको बराबर जो बनाया है। उसके लिए न कोई अमीर है, न गरीब। न कोई ऊँच, न नीच। न कोई छोटा, न बड़ा। लेकिन विडंबना यह है कि दिन-रात उससे याचना कर उसकी राह पर चलने का दावा करने वाले उसके बंदे, उसके भक्त ही सबको बराबरी की नजर से नहीं देखते, क्योंकि उनकी नजर, उनके मन, आचरण में भेदभाव होता है।इसी कारण वे सामने वाले को अपने से छोटा या बड़ा, ऊँचा या नीचा मानते हैं। और जो ऐसा करते हैं, वे अपने पास सब कुछ होने के बाद भी एक कमी सी, एक अभाव-सा महसूस करते हैं। वे यह समझ ही नहीं पाते कि यह अभाव अपने मन में बसी भेदभाव की भावना की वजह से है। जिस दिन वे इससे ऊपर उठ जाएँगे, उस दिन यह कमी खुद-ब-खुद दूर हो जाएगी। लेकिन समस्या यह है यह जानते हुए भी लोग इससे मुक्त नहीं हो पाते।
साथियों बात अगर हम मानवीय भाव में हर क्षेत्र में विभाजन की करें तो वर्तमान समय में श्मशान में भी सामाजिक विभाजन के एक भाव को आधुनिकता एवं अलग वैचारिक सामाजिक सोच के प्रभाव में आकर बदले जाने की कोशिश तेज हो गई है क्योंकि,भारत के सामाजिक ढांचे में इंसानियत का यह विभाजन जन्म के साथ शुरू होता है और मौत के बाद भी श्मशान घाट तक इंसान का पीछा करता है। भारतीय समाज अनेक जातिधर्मों में तो बंटा रहा है, लेकिन यह बंटवारा श्मशान घाट में भी दिखाई देता है। एक राज्य में विभिन्न जातियों के लिए अलग अलग श्मशान की परंपरा रियासत काल’ की विरासत है। उस राज्य में रियासत के दौर में अलग-अलग जातियों के शमशान घाट का चलन शुरू हुआ। यह आज भी जारी है। एक छोटे से शहर में लगभग 47 श्मशान घाट है जबकि जयपुर में इनकी तादाद 57 है। हर जाति का अपना अंतिम दाह-संस्कार स्थल हैं और उपजातियों ने भी अपने मोक्ष धाम बना लिए है।
साथियों बात अगर हम महिलाओं के श्मशान घाट पर वर्जित होने संबंधी मान्यताओं की करे तो, महिलाओं का मन कमजोर और कोमल होता है। श्मशान में जो दृश्य होते हैं उसको देखकर वह अपने आपको विलाप करने से नहीं रोक पाती हैं। जिससे मृत आत्मा को भी दुख होने लगता है। इस कारण से भी महिलाएं श्मशान में नहीं जाती। ऐसा माना जाता है, श्मशान घाट पर हमेशा नकारात्मक ऊर्जा फैली होती है। महिलाओं के श्मशान घाट जाने पर नकारात्मक ऊर्जा आसानी से उनके शरीर प्रवेश कर सकती है क्योंकि स्त्रियां कोमल ह्रदय की मानी जाती है। साथ ही नकारात्मक ऊर्जा से उनके अंदर बीमारी फैलने की संभावना ज्यादा होती है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, अंतिम संस्कार में परिवार के पुरुषों को मुंडन करवाना पड़ता है, जबकि महिलाओं का मुंडन करना शुभ नहीं माना जाता है, इस वजह से महिलाओं को अंतिम संस्कार में शामिल नहीं किया जाता है। मान्यता है कि अंतिम संस्कार के दौरान घर में नकारात्मक शक्तियां हावी रहती हैं, इसलिए घर को सूना नहीं छोड़ना चाहिए, श्मशान घाट से लौटने के बाद पुरुष स्नान करने के बाद घर में प्रवेश करते हैं, तब तक महिलाओं को घर पर ही रहना पड़ता है।
साथियों शवदाह संस्कार के बाद घर लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देनी देखने की मान्यता की करें तो, शवदाह संस्कार के बाद घर लौटते समय वापस पीछे मुड़कर देखने पर आत्मा का अपने परिवार के प्रति मोह टूट नहीं पाता है। दूसरी ओर पीछे मुड़कर देखने का मतलब यह भी होता है कि मृत व्यक्ति के प्रति हम में भी मोह बना हुआ है। इसलिए मोह से मुक्ति के लिए शवदाह संस्कार के बाद लौटते समय पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। पुराणों में बताया गया है कि मृत्यु के बाद भी कुछ लोगों की आत्मा का अपने परिवार के सदस्यों के साथ मोह बना रहता है। आत्मा के मोहग्रस्त होने पर व्यक्ति की आत्मा अपने परिजनों के आस-पास भटकती रहती है। इस स्थिति में व्यक्ति को मुक्ति नहीं मिल पाती है और उसे कष्ट भोगना पड़ता है। शव दाह संस्कार करके मृत व्यक्ति की आत्मा को यह संदेश दिया जाता है कि अब तुम्हारा जीवित लोगों से और तुम्हारे परिजनों से संबंध तोड़ने का समय आ गया है। मोह के बंधन से मुक्त होकर मुक्ति के लिए आगे बढ़ो।अंतिम संस्कार में वेद मंत्रों के साथ शव को अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। शास्त्रों में बताया गया है कि अग्नि में भष्म होने के बाद शरीर जिन पंच तत्वों से बना है उन पंच तत्वों में जाकर वापस मिल जाता है।
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन करउसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे के शमशान-शव दाह संस्कार, शमशान तेरा हिसाब बड़ा ही नेक है-तेरे यहां अमीर हो या गरीब सब का बिस्तर एक है।सामाजिक ढांचे में इंसानियत का विभाजन जन्म के साथ शुरू होकर मौत के बाद शमशान में, समानता का भाव, सबका बिस्तर एक से महसूस होता है।
*-संकलनकर्ता लेखक – कर विशेषज्ञ स्तंभकार एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र*